लेखनी -स्याही संवाद
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एक लेखनी जेब में कई दिनों से पड़ी थी
वो जेब से थोड़ी बड़ी थी
इतनी की समझो बाहर का नज़ारा देखने
साहब की जेब में खड़ी थी
जब निकली जेब से तो उसने स्याही से सब कुछ कहा
इतने दिनों में वो जो कुछ भी पढ़ी थी
अरे स्याही! मैंने देखा
दुनिया बनावटी पन से जड़ी थी
वहाँ सबको बस अपनी पड़ी थी ।
एक ठग की दुकान तो बड़ी जमी थी
बगल ही ईमानदार की आँखों में कुछ नमी थी
सुविधाएँ बड़ी से बड़ी थी
और भावों की बड़ी ही कमी थी
एक छोटी लड़की भी असहज खड़ी थी
एक बुढ़िया सड़क किनारे पड़ी थी
अरे स्याही !
वहाँ सबको बस अपनी पड़ी थी
कहीं बाढ़ तो कहीं वर्षा की कमी थी
छोटी अब बड़ी से बड़ी थी
झूठ की पंक्ति में बड़ी भीड़ खड़ी थी
सत्य की राह में बस एक या दो की नज़रें गड़ी थी
अरे स्याही!
वहाँ बस सबको अपनी पड़ी थी ।।
कलम की व्यथा सुन
कागज़ पे स्याही अपने अंदाज़ में बह चली थी ,
उधर लेखनी फिर नयी कविता की खोज में चल पड़ी थी।
-स्मृति तिवारी ( मेरी लेखनी से)
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